< Shab E Meraj Ki Namaz Ka Tarika | शबे मेराज की नमाज़ का तरीका
Shab E Meraj Ki Namaz Ka Tarika | शबे मेराज की नमाज़ का तरीका

Shab E Meraj Ki Namaz Ka Tarika | शबे मेराज की नमाज़ का तरीका

Shab E Meraj Ki Namaz Ka Tarika

शबे मेराज के नमाज़ का तारिका हिंदी में पढें।। Shab E Meraj Ki Namaz Ka Tarika Hindi me padhen।। 

(1.) किताब अल वारिद मेंमनकुल है के इस रात को 12 रकात नफल छे सलाम से अदा करें 

हर रकात में बाद अल्हम्द के सूरह इखलास पांच बार पढ़े बाद एख्तेतामें नमाजकलमा तमजीदइस्ताईफार और दरूद शरीफ सौसौ बार पढ़ कर जो दुआ करें कबूल होगी 

(2.) तहफ़ा में मजकुर है के रात (:6 ) रकात नफल तीन सलाम से अदा करेऔर हर रकात में बाद अल्हम्द के सूरह इखलास सात बार पढ़े 

बाद फरीगे नमाज के 50 बार दरूद शरीफ पढ़ कर दुआ करें अल्लाह ताला तमाम हाजात दिनी वा दुनियावी पूरा करेगा 

(3.) तहफ़ा में मरकुम है के दो रकात नफल पढ़े पहली रकात में बाद अल्हम्द सूरह अलम तारा और दूसरी रकात में बादअल्हम्द सूरह लिईयलाफ एक एक बार पढे सवाबे अजीम पाएगा  

(4.) फलाहुद्दीन में लिखा है के 100 रकात नमाज नफल 50 सलाम से अदा करे और हर रकात में बाद अल्हम्द के सूरह इखलास एक बार पढ़े बाद फरीग नमाज सौ बार दरूद शरीफ पढ़कर कर सरबस्जुद अल्लाह ताला से अपनी हाजत तलब करेंइंशाल्लाह इसकी हाजत जरूर पूरी होगी 

(5.) अक्सर सोल्हा का तरीका यह है के बा नियत हदीया रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो ताला अलेही वसल्लम दो रकात नमाज अदा करें और हर रकात में बाद अल्हम्द के सूरह इखलास 27 बार पढ़े कादह में अत्ताहियात के बाद दरूद इब्राहिम 27 बार पढ़कर दुआ पढ़े बाद सलाम के इसका हदिया हुजूर पुर्नूर सल्लल्लाहो ताला अलेही वसल्लम की बारगाह में गुज़रआने की शआदत हिसिल करे   

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Shab E Meraj Ki Namaz Ki फजाइल

फजाइल शबे मेराज:–रजब में एक ऐसी रात है जिसमें इबादत करने वालों के नामे आमाल में 100 बरस के हसनात लिखे जाते हैं वह रजब की 27वीं रात है इस रात की फजीलत इस वजह से भी ज्यादा है के इसी मुबारक शब में हुजूरफखरे कायनात प्यार आका करीम सल्लल्लाहो ताला वसल्लम ने बुलावे खुदा वंदीपर आसमानों पर उरूज फरमाया और मस्जिद अक्सा में अंबियासाबेकीन और मलाइका मुकररबिन की इमामत फरमाई 

इस मुबारक रात में अहकामे खास आप पर नाजिल हुए और आप दीदारेखुदा वंदी से सरफराज़ हुए जो शख्स इस रात को इबादत करता है शआदते मेराज का सवाब इस के नामे आमल में लिखा जाता है शबे मेराज शबे रहमत है इस रात को जो शख्स इबादत करेगा अल्लाह ताला इसको कामयाब वा बामुराद रखेगा और हर बला वा मुसीबत से बचाएगा 

प्यारे आका सल्लल्लाहो ताला अलेही वसल्लम ने इरशाद फरमाया के माहे रजब की 27वीं शब को आसमानों से (70000) सत्तर हज़ार फरिश्ते अपने सरों पर अनवारे इलाही के तबक रखे हुए जमीन पर आते हैं और हर इस घर में दाखिल होते हैं जिसके रहने वाले यादें इलाही में मशगुल रहते हैं हुकुम होता है कि इन नूर के तबाकों को उनके सरों पर उलट दो जो इस शब् की कद्र करते हैं सुभान अल्लाह ऐसी नेमत अजीम हासिल करने की अल्लाह ताला हर मुसलमान को तौफीक अता फरमाए आमीन 

अपने इल्म में इज़ाफ़े के लिए इमामत के बयान भी पढ़ सकते हैं

इमामत की दो किस्मे है।

1. इमामते सुगरा :- नमाज़ की इमामत का नाम इमामते सुगरा है।

2. इमामते कुबरा: नबी सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की नियाबत यानी काइम मकाम काम करने को इमामते कुबरा कहते हैं।

इस तरह कि इमामों से मुसलमानों की तमाम दीनी और दुनियावी ज़रूरतें वाबस्ता हैं। इमाम जो भी अच्छे कामों का हुक्म दें उनकी पैरवी तमाम दुनिया के मुसलमानों पर फर्ज़ है। इमाम के लिए आज़ाद आकिल, बालिग कादिर और करशी होना. शर्त है।

राफिज़ी लोगों का मज़हब यह है कि इमाम के लिये हाशिमी, अलवी और मासूम होना शर्त है। इससे उनका मक्सद यह है कि तीनों खलीफा जो हक पर हैं उनको खिलाफत से अलग करना चाहते हैं। जब कि तमाम सहाबए किराम और हज़रते अली रदियल्लाहु तआला अन्हुम और हजरते इमाम हसन और हज़रते इमाम हुसैन रदियल्लहु तआला अन्हुमा ने पहला खलीफा हज़रते अबूबकर दूसरे खलीफा हज़रते उमर तीसरे खलीफा हज़रते उसमाने गनी रदियल्लाहु तआला अन्हुम को माना है।

राफिज़ी मज़हब में इमाम की शर्तों में से एक शर्त जो अलवी होने की बढ़ाई गई है उससे हज़रते अली भी इमाम नहीं हो सकते क्यूँकि अलवी उसे कहेंगे जो हज़रते अली की औलाद में से हो। राफिज़ी मज़हब में इमाम की शर्तों में एक शर्त इमाम का मासूम होना भी है जबकि मासूम होना अम्बिया और फरिश्तों के लिए खास है।

मसला :- इमाम होने के लिए यही काफी नहीं कि खाली इमामत का मुस्तहक हो बल्कि उसे दीनी इन्तिज़ाम कार लोगों ने या पिछले इमाम ने मुक्करर किया हो।

मसला :- इमाम की पैरवी हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है जबकि उसका हुक्म शरीअत के खिलाफ न हो। बल्कि शरीअत के खिलाफ किसी का भी हुक्म नहीं माना जा सकता।

मसला :- इमाम ऐसा शख़्स मुक्करर किया जाए जो आलिम हो या आलिमों की मदद से काम करे और बहादुर हो ताकि हक बात कहने में उसे कोई ख़ौफ न हो।

मसला :- इमामत औरत और नाबालिग की जाइज़ नहीं। अगर पहले इमाम ने नाबालिग को इमाम मुक्करर कर दिया हो तो उसके बालिग होने के लिए लोग एक वली मुक्करर करें कि वह शरीअत के अहकाम’ जारी करे और यह नाबालिग इमाम सिर्फ रस्मी होगा और हकीकत में वह उस वक़्त तक इमाम का वाली है।

अकीदा हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के बाद खलीफा बरहक और इमामे मुतलक हज़रते अबूबकर सिद्दीक फिर हज़रते उमर फारूक फिर हज़रते उसमाने गनी फिर हज़रते अली 6 महीने के लिये हज़रते इमाम हसन रदियल्लाहु तआला अन्हुम खलीफां हुए। इन बुजूर्गों को खुलफाये राशिदीन और उनकी खिलाफत को खिलाफते राशिदा कहते हैं। इन नाइबों ने हुजूर की सच्ची नियाबत का पूरा पूरा हक अदा फ़रमाया है।

अकीदा :- नबियों और रसूलों के बाद हज़रते अबूबकर इन्सान, जिन्नात, फरिश्ते और अल्लाह तआला की हर मखलूक से अफ‌ज़ल हैं फिर हज़रते उमर फिर हज़रते उसमान गनी और फिर हज़रते अली रदियल्लाहु तआला अन्हुम जो आदमी मौला अली मुशकिल कुशा रदियल्लाहु तआला अन्हु को पहले या दूसरे खलीफा से अफ‌ज़ल बताये वह गुमराह और बद मज़हब है।

अकीदा :- अफ‌ज़ल का मतलब यह है कि अल्लाह तआला के यहाँ ज़्यादा इज़्ज़त वाला हो। इसी को कसरते से सवाब भी ताबीर करते हैं न कि कसरते अज़्र कि बारहा मफजूल के लिए होती है। सय्यदना हज़रते इमाम महदी के साथियों के लिए हदीस शरीफ में यह आया है कि उनके एक के लिये पचास का अज़्र है। सहाबा ने हुजूर से पूछा उन में के पचास का या हम में के। फ़रमाया बल्कि तुममें के। तो अज़्र उनका ज़ाइद हुआ मगर अफज़लीयत में वह सहाबा के हमसर भी नहीं हो सकते ज़्यादा होना तो दर किनार। कहाँ इमाम महदी की रिफाक्त कहाँ हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की सहाबियत उसकी मिसाल बिना तश्बीह यूँ समझिये कि सुलतान ने किसी मुहिम पर वज़ीर और कुछ दूसरे अफसरों को भेजा उसकी फतह पर हर अफसर को लाख लाख रुपये इनाम के दिये और वज़ीर को खाली उसके मिज़ाज की खुशी के लिए एक पर्वाना दिया तो इनाम दूसरे अफसरों को ज़्यादा मिला लेकिन इस इनाम को उस परवाने से कोई निसबत नहीं।

अक़ीदा :- उनकी ख़िलाफत बर तरतीबे फजीलत है यानी जो अल्लाह के नज़दीक अफज़ल, आला, और अकरम था वही पहले खिलाफत पाता गया न कि अफज़लीयत बर तरतीबे खिलाफत यानी अफज़ल यह कि मुल्कदारी व मुल्क गीरी में ज्यादा सलीका। जैसा कि आजकल सुन्नी बनने वाले तफ्ज़ीलिये कहते हैं। अगर यूँ होता तो हज़रते फारूक आज़म रदियल्लाहु तआला अन्हु सबसे अफज़ल होते क्यूँकि उनकी खिलाफत को यह कहा गया है कि। لَمْ أَرَ عَبْقَرَيًا يُفْرِى كَفَرَيْهِ حَتَّى ضَرَبَ النَّاسُ بِعَطَنٍ

तर्जमा :- “मैंने किसी मर्दे कवी को उनकी तरह अमल करते हुए नहीं देखा यहाँ तक कि लोग सैराब हो गये और पानी से करीब ऊँट बैठाने की जगह बनाई”।

और हज़रते सिद्दीके अकबर रदियल्लाहु तआला अन्हु की खिलाफत को इस तरह फ़रमाया

गया कि । في نَزْعِهِ ضَعُفَ وَاللَّهِ يَغْفِرُ لَهُ

तर्जमा :- ” उनके पानी निकालने में कमज़ोरी रही अल्लाह तआला उनको बख़्शे’ ।

यह हदीस इस तरह है कि हज़रते अबू हुरैरा रदियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं कि मैंने हुजूरे अकरम सल्लल्लाहु तआला ‘अलैहि वसल्लम से सुना कि उन्होंने फ़रमाया कि मैंने ख़्वाब में कुएँ पर एक डोल रखा देखा तो मैंने उससे जितना अल्लाह तआला ने चाहा पानी निकाला फिर हज़रते अबूबक सिद्दीक रदियल्लाहु तआला अन्हु ने वह डोल लिया। उन्होंने एक या दो भरे डोल निकाले। उनके निकालने में कमज़ोरी रही।

अकीदा :- चारों खुलफाए राशिदीन के बाद बकीया अशरह मुबश्शेरह और हज़राते हसनैन और असहाबे बद्र और असहाबे बैअतुर्रिज़वान के लिए अफज़लियत है। और यह सब कतई जन्नती है। और तमाम सहाबए किराम रदियल्लाहु तआला अन्हुम अहले खैर और आदिल हैं। उनका भलाई के साथ ही ज़िक्र होना फर्ज है।

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