Sehri ki dua अस्सलामु अलैकुम दोस्तों आज हम सेहरी की दुआ आपके लिए बहुत अच्छी और सही तरीके से लिख रहे है आप सेहरी की दुआ हिंदी इंग्लिश और अरबी में पढ़ सकते है और आसानी से याद भी कर सकते है |
सेहरी की दुआ हिंदी में
व बिसवमी गदिन्न नवैयतु मिन शहरी रमज़ान
सेहरी की दुआ इंग्लिश में
Wa bisawmi ghadinn nawaiytu min shahri ramadan
सेहरी की दुआ अरबी में
وَبِصَوْمِ غَدٍ نَّوَيْتُ مِنْ شَهْرِ رَمَضَانَ
आप यहाँ सहरी और इफ्तार के मसाइल में अच्छे से पढ़ सकते हैं
सहरी की फज़ीलत
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया सहरी खाओ कि सहरी खाने में बर्कत है हमारे और अहले किताब के रोज़ों में फर्क सहरी का लुकमा है। अल्लाह और उसके फरिश्ते सहरी खाने वालों पर दुरूद भेजते हैं। सहरी कुल की कुल बरकत है उसे न छोड़ना चाहिये एक घूंट पानी ही पी ले क्योंकि सेहरी खाने वालों पर अल्लाह और उसके फरिश्ते दुरूद भेजते हैं। हुजूर अलैहिस्सलातु वस्सलाम फ़रमाते हैं कि अल्लाह तआला ने फरमाया कि मेरे बंदों में मुझे प्यारा वह है जो इफ्तार में जल्दी करता है और फरमाया इफ्तार में जल्दी करने और सहरी में देर करने को अल्लाह तआला पसंद करता है।
मसला :सहरी खाना और इसमें देर करना सुन्नत है मगर इतनी देर करना मकरूह है कि सुबह सादिक शुरू हो जाने का शक हो जाये।।
मसला : इफतार में जल्दी करना सुन्नत है मगर इफतार उस वक्त करे जब सूरज डूब जाने का इत्मीनान हो जाये। जब तक इत्मीनान न हो इफतार ना करे चाहे मुअज़्ज़िन ने अज़ान कह दी हो और बादल के दिन इफ्तार में जल्दी न चाहिये।
मसला : तोप और नक्कारा का सहरी व इफ्तार में उस वक्त एतेबार है जबकि किसी परहेजगार मुहक्किक आलिम तौकीतदां (औकाते नमाज का इल्म रखने वाला) के हुक्म पर चले बजे। आज कल के आम उलेमा भी इस फन से नावाकिफ हैं और जंत्रियां भी अक्सर गलत होती है उन पर अमल जायज नहीं, हां किसी दीनदार इल्मे तौकीत के माहिर आलिम का बनाया हुआ नक़्शए सहर व इफतार हो तो इस पर अमल हो सकता है।
मसला: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया जब कोई रोजा इफ्तार करे तो खजूर या छुआरे से इफ्तार करे कि वह बरकत है और अगर न मिले तो पानी से कि वह पाक करने वाला है और हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इफ्तार के वक्त यह दुआ पढ़ते अल्लाहुम्मा लका सुमतो व बिका आमन्तो व अला रिज़्के का अफतरतो (यानी ऐ अल्लाह तेरे ही लिये रोजा रखा मैंने और तेरी ही दी हुई रोजी से इफ्तार किया मैंने।)
किन किन हालतों में रोज़ा न रखने की इजाज़त है
मसला: सफर, हमल और बच्चा को दूध पिलाना और बीमारी और बुढ़ापा और हलाक होने का डर और इकराहे शरई और नुक्साने अक़्ल और जिहाद यह सब रोज़ा न रखने के लिये उज़्र है। इन बातों की वजह से अगर कोई रोज़ा न रखेगा तो गुनाहगार नहीं लेकिन बाद में जब उज़्र जाता रहे तो इन छोड़े हुए रोजों का रखना फर्ज है।
मसला: सफर से मुराद शरई सफ है यानी इतनी दूर जाने के इरादे से निकले कि यहां से यहां तक तीन दिन की राह हो अगरचे वह सफर किसी नाजायज़ काम के लिये न हो। (दुर्रे मुख्तार)
मसला: दिन में सफर किया तो उस दिन का रोजा इफ्तार करने के लिये आज का सफर उज़्र नहीं अलबत्ता अगर तोड़ेगा तो कफ़्फ़ारा लाज़िम न आयेगा मगर गुनाहगार होगा और अगर सफ करने से पहले तोड़ दिया फिर सफर किया तो कफ्फारा भी लाजिम हुआ और अगर दिन में सफर किया और मकान पर कोई चीज भूल गया था उसे लेने वापस आया और मकान पर आकर रोजा तोड़ डाला तो कफ्फारा वाजिब है।
मसला: मुसाफिर ने जहवए कुबरा से पहले इकामत की और अभी कुछ खाया नहीं तो रोजा की नीयत कर लेना वाजिब है।
मसला: खुद उस मुसाफिर को और उसके साथ वाले को रोजा रखने जरर (नुक्सान) न पहुंचे तो रोजा रखना सफर में बेहतर है वरना न रखना बेहतर।
मसला: हमल वाली और दूध पिलाने वाली को अगर अपनी जान या बच्चे का सही डर हो तो इजाजत है कि उस वक़्त रीजा न रखें ख्वाह दूध पिलाने वाली बच्चे की मां हो या दाई अगरचे रमजान में दूध पिलाने की नौकरी की ही।
मसला: मरीज को बीमारी बढ़ जाने या देर में अच्छा होने का या तंदुरुस्त को बीमार हो जाने को गुमान गालिब हो या खादिम, खादिमा को बहुत कमजोर हो जाने का गुमान गालिब हो तो इन सबको इजाज़त है कि उन दिनों रोजा न रखे।
मसला: इन सूरतों में गुमान गालिब जरूरी है महज वहम व ख्याल काफी नहीं। गुमान गालिब की तीन सूरते हैं इसकी ज़ाहिर निशानी पाई जाती है या उस शख्स का अपना तजुर्बा है या किसी मुसलमान माहिर तबीब ने जो फासिक न हो उसने इसकी खबर दी हो और अगर न कोई निशानी हो न तजुर्बा न ऐसे तबीब ने बताया तो रोजा छोड़ना जायज नहीं बल्कि महज वहम व ख्याल से या काफिर या फासिक तबीब के कहने से रोजा तोड़ दिया तो कफ्फारा भी लाजिम आयेगा। आजकल के अक्सर अतिब्बा अगर काफिर नहीं तो फासिक जरूर है और न सही तो हाजिक (अपने फन में माहिर) व माहिर तबीब नायाब से हो रहे हैं ऐसों का कहना कुछ काबिले एतेबार नहीं इनके कहने पर रोजा न रखना या तोड़ देना जायज नहीं। इन तबीबों को देखा जाता है कि जरा जरा सी बीमारी में रोज़ा को मना कर देते हैं इतनी भी तमीज़ नहीं रखते कि किस मर्ज में रोज़ा मुज़िर (नुक्सान) है किसमें नहीं?
मसला: भूख और प्यास ऐसी हो कि हलाक हो जाने का सही डर हो या अक्ल खराब हो जाने का डर हो तो रोज़ा न रखे।
मसला सांप ने काटा और जान का डर हो तो रोजा तोड़ दे।
मसला: शैखे फानी (यानी वह बूढ़ा जिसकी उम्र ऐसी हो गई कि अब रोज बरोज कमज़ोर ही होता जायेगा) जब रोज़ा रखने से आजिज हो यानी न अब रख सकता है न आइदा उसमें इतनी ताकत आने की उम्मीद है कि रोजा रख शकंगा तो उसे रोजा न रखने की इजाजत है और हर रोजे के बदले में फ़िदया वानी दोनों वक़्त एक मिस्कीन को भर पेट खाना खिलाना उस या वाजिब है या हर रोजा के बदले में सदकए फित्र के बराबर मिसकीन को दे दे। (यानी २ किलो ४५ ग्राम गेहूं या इतनी रकम जिससे २ किलो ४५ ग्राम गेहूं खरीदा जा सके)।
मसला: अगर ऐसा बूढ़ा गर्मियों में गर्मी की वजह से रोजा नहीं रख सकता मगर जाड़ों में रख सकता है तो अब इफ्तार कर ले और उनके बदले के जाड़ों में रखना फर्ज़ है।
मसला: अगर फिदया देने के बाद इतनी ताकत आ गई कि रोजा रख सके तो इन रोज़ों की कजा रखना वाजिब है फिदया सदकए नफ़्ल हो गया।
मसला: किसी के बदले कोई दूसरा न रोज़ा रख सकता है न नमाज पढ़ सकता है अलबत्ता अपने रोज़े नमाज वगैरह का सवाब दूसरे को पहुंचा सकता है।
मसला: नफ्ली रोज़ा कसदन शुरू करने से लाज़िम हो जाता है अगर तोड़ेगा तो कज़ा वाजिब होगी या किसी वजह से टूट जायेगा जैसे हैज आ गया तो भी कजा वाजिब है।
मसला: ईदैन या अय्याम तशरीक में नफ़ल रोज़ा रखा तो उस रोजा का पूरा करना वाजिब नहीं बल्कि उस रोजा का तोड़ देना वाजिब है और इसके तोड़ने से कज़ा वाजिब नहीं और अगर इन दिनों में रोज़ा की मिन्नत मानी तो मिन्नत पूरी करनी वाजिब है लेकिन इन दिनों में नहीं बल्कि और दिनों में।
कब नफ्ल रोजा तोड़ सकता है?
मसला: मेहमान की खातिर से रोजा तोड़ने की इजाजत है जबकि यह भरोसा हो कि उसकी कज़ा रख लेगा और यह तोड़ने की इजाज़त जहवए कुबरा से पहले तक है बाद को नहीं हां मां बाप की नाराजी के सबब से अस्र से पहले तक तोड़ सकता है अस के बाद नहीं।
मसला: किसी भाई ने दावत की तो जहवए कुबरा से पहले नएल रोजा तोड़ने की इजाज़त है लेकिन बाद में कज़ा रखना होगा।
मसला औरत बगैर शौहर की इजाजत के नपल और मिन्नत और कसम के रोज़े न रखे अगर रख लिये तो शौहर तुडवा सकता है। मगर तोड़ेगी तो कज़ा वाजिब होगी और इसकी कजा में शौहर से इजाज़त लेनी होगी और अगर शौहर का हर्ज न हो तो कजा में इसकी इजाजत की जरूरत नहीं बल्कि वह मना भी करे जब भी कजा रख सकती है। रमजान के लिये और रमज़ान की कज़ा के लिये शौहर की इजाजत की कुछ जरूरत नहीं बल्कि यह रोके जब भी रखे।
मसला: किसी वजह से भी रोजा न रखा बाद में जब बन पड़े इसका रखना फर्ज है। (दुर्रे मुख्तार वगैरह)